रविवार, 22 अप्रैल 2018

NavRas, रस की परिभाषा, भेद और उदाहरण

रस की परिभाषा, भेद और उदाहरण

श्रव्य काव्य के पठन अथवा श्रवण एवं दृश्य काव्य के दर्शन तथा श्रवण में जो अलौकिक आनन्द प्राप्त होता है, वही काव्य में रस कहलाता है। रस से जिस भाव की अनुभूति होती है वह रस का स्थायी भाव होता है। रस,छंद और अलंकार - काव्य रचना के आवश्यक अवयव हैं।

रस क्या होते हैं :-

रस का शाब्दिक अर्थ होता है – आनन्द।
परिभाषा – काव्य को पढ़ते या सुनते समय जो आनन्द मिलता है उसे रस कहते हैं। रस को काव्य की आत्मा माना जाता है। प्राचीन भारतीय वर्ष में रस का बहुत महत्वपूर्ण स्थान था। रस -संचार के बिना कोई भी प्रयोग सफल नहीं किया जा सकता था। रस के कारण कविता के पठन , श्रवण और नाटक के अभिनय से देखने वाले लोगों को आनन्द मिलता है।
संस्कृत में कहा गया है कि "रसात्मकम् वाक्यम् काव्यम्" अर्थात् रसयुक्त वाक्य ही काव्य है।
रस अन्त:करण की वह शक्ति है, जिसके कारण इन्द्रियाँ अपना कार्य करती हैं, मन कल्पना करता है, स्वप्न की स्मृति रहती है। रस आनंद रूप है और यही आनंद विशाल का, विराट का अनुभव भी है। यही आनंद अन्य सभी अनुभवों का अतिक्रमण भी है। आदमी इन्द्रियों पर संयम करता है, तो विषयों से अपने आप हट जाता है। परंतु उन विषयों के प्रति लगाव नहीं छूटता। रस का प्रयोग सार तत्त्व के अर्थ में चरक, सुश्रुत में मिलता है। दूसरे अर्थ में, अवयव तत्त्व के रूप में मिलता है। सब कुछ नष्ट हो जाय, व्यर्थ हो जाय पर जो भाव रूप तथा वस्तु रूप में बचा रहे, वही रस है। रस के रूप में जिसकी निष्पत्ति होती है, वह भाव ही है। जब रस बन जाता है, तो भाव नहीं रहता। केवल रस रहता है। उसकी भावता अपना रूपांतर कर लेती है। रस अपूर्व की उत्पत्ति है। नाट्य की प्रस्तुति में सब कुछ पहले से दिया रहता है, ज्ञात रहता है, सुना हुआ या देखा हुआ होता है। इसके बावजूद कुछ नया अनुभव मिलता है।


विभिन्न सन्दर्भों में रस का अर्थ

एक प्रसिद्ध सूक्त है- रसौ वै स:। अर्थात् वह परमात्मा ही रस रूप आनन्द है। 'कुमारसम्भव' में पानी, तरल और द्रव के अर्थ में रस शब्द का प्रयोग हुआ है। 'मनुस्मृति' मदिरा के लिए रस शब्द का प्रयोग करती है। मात्रा, खुराक और घूंट के अर्थ में रस शब्द प्रयुक्त हुआ है। 'वैशेषिक दर्शन' में चौबीस गुणों में एक गुण का नाम रस है। रस छह माने गए हैं- कटु, अम्ल, मधुर, लवण, तिक्त और कषाय। स्वाद, रूचि और इच्छा के अर्थ में भी कालिदास रस शब्द का प्रयोग करते हैं। प्रेम की अनुभूति के लिए 'कुमारसम्भव' में रस शब्द का प्रयोग हुआ है। 'रघुवंश', आनन्द और प्रसन्नता के अर्थ में रस शब्द काम में लेता है। 'काव्यशास्त्र' में किसी कविता की भावभूमि को रस कहते हैं। रसपूर्ण वाक्य को काव्य कहते हैं।

रस के अंग :-

नाट्यशास्त्र में भरत मुनि ने रस की व्याख्या करते हुये कहा है - विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद्ररस निष्पत्ति:।

अर्थात विभावअनुभावव्यभिचारी भाव के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है। सुप्रसिद्ध साहित्य दर्पण में कहा गया है हृदय का स्थायी भाव, जब विभाव, अनुभाव और संचारी भाव का संयोग प्राप्त कर लेता है तो रस रूप में निष्पन्न हो जाता है।
रीतिकाल के प्रमुख कवि देव ने रस की परिभाषा इन शब्दों में की है :
जो विभाव अनुभाव अरू, विभचारिणु करि होई।
थिति की पूरन वासना, सुकवि कहत रस होई॥
इस प्रकार रस के चार अंग हैं विभाव, अनुभाव,  संचारी भाव और स्थायी भाव

1. विभाव
2. अनुभाव
3. संचारी भाव
4. स्थायीभाव
1. विभाव :- जिन कारणों से स्थायी भाव उत्पन्न होता है, उसे विभाव  कहते है, अर्थात स्थायी भाव के कारणों को विभाव कहते है,
जो व्यक्ति , पदार्थ, अन्य व्यक्ति के ह्रदय के भावों को जगाते हैं उन्हें विभाव कहते हैं। इनके आश्रय से रस प्रकट होता है यह कारण निमित्त अथवा हेतु कहलाते हैं। विशेष रूप से भावों को प्रकट करने वालों को विभाव रस कहते हैं। इन्हें कारण रूप भी कहते हैं।
स्थायी भाव के प्रकट होने का मुख्य कारण आलम्बन विभाव होता है। इसी की वजह से रस की स्थिति होती है। जब प्रकट हुए स्थायी भावों को और ज्यादा प्रबुद्ध , उदीप्त और उत्तेजित करने वाले कारणों को उद्दीपन विभाव कहते हैं।

आलंबन विभाव के पक्ष :-

ये दो प्रकार के होते है,

  1. आलंबन विभाव – जिसका सहारा या आलंबन पाकर स्थायी भाव जागृत होता है,उसे आलंबन विभाव कहते है,
जैसे – नायक और नायिका ये आलंबन विभव के दो पक्ष होते है, नायक या नायिका जिसके मन में दुसरे के प्रति कोई भाव जागृत हो तो उसे आश्रयलंबन कहलाता है,
और जिसके प्रति भाव जागृत होता है, उसे – विषयालंबन कहते है,
उदा. – यदि राम के मन में सीता को देखकर कोई भाव जागृत होता है, तो राम आश्रय है, और सीता विषय |

  1. उद्दीपन विभाव – जिन वस्तुओ या परिस्थिति को देखकर स्थायी भाव उद्दीप्त होने लगता है, उद्दीपन विभाव कहलाता है,
जैसे –  चांदनी, कोकिल क्रुजन, एकांत स्थल, रमणीक उद्यान आदि  को देखकर जो भाव मन में उद्दीप्त होता है, उसे उद्दीपन कहते है,
2. अनुभाव :- अनुभाव – मन के भाव को व्यक्त करने वाले शरीर विकार ही अनुभाव कहलाते है, अर्थात वह भाव जिसके द्वारा किसी व्यक्ति के मन के भावो  को उसके शरीर के विकारो से जाना जा सकता है,
अनुभाव की संख्या 8 होती है, –
जो आठ अनुभाव सहज और सात्विक विकारों के रूप में आते हैं उन्हें सात्विकभाव कहते हैं। ये अनायास सहजरूप से प्रकट होते हैं | इनकी संख्या आठ होती है।
1. स्तंभ
2. स्वेद
3. रोमांच
4. स्वर – भंग
5. कम्प
6. विवर्णता
7. अश्रु
8. प्रलय
3. संचारी भाव :- जो स्थानीय भावों के साथ संचरण करते हैं वे संचारी भाव कहते हैं। इससे स्थिति भाव की पुष्टि होती है। एक संचारी किसी स्थायी भाव के साथ नहीं रहता है इसलिए ये व्यभिचारी भाव भी कहलाते हैं। इनकी संख्या 33 मानी जाती है।
1. हर्ष
2. चिंता
3. गर्व
4. जड़ता
5. बिबोध
6. स्मृति
7. व्याधि
8. विशाद
9. शंका
10. उत्सुकता
11. आवेग
12. श्रम
13. मद
14. मरण
15. त्रास
16. असूया
17. उग्रता
18. निर्वेद
19. आलस्य
20. उन्माद
21. लज्जा
22. अमर्श
23. चपलता
24. धृति
25. निंद्रा
26. अवहित्था
27. ग्लानि
28. मोह
29. दीनता
30. मति
31. स्वप्न
32. अपस्मार
33. दैन्य
34. सन्त्रास
35. औत्सुक्य
36. चित्रा
37. वितर्क
4. स्थायीभाव :- काव्यचित्रित श्रृंगार रसों के मुलभुत के कारण स्थायीभाव कहलाते हैं। जो मुख्य भाव रसत्व को प्राप्त होते सकते हैं। रसरूप में जिसकी परिणति हो सकती है वे स्थायी होते हैं। स्थाईभावों की स्थिति काफी हद तक स्थायी रहती है। इसमें आठ रसों की स्थिति प्राप्त हो सकती है।


रस की उत्पत्ति

भरत ने प्रथम आठ रसों में शृंगार, रौद्र, वीर तथा वीभत्स को प्रधान मानकर क्रमश: हास्य, करुण, अद्भुत तथा भयानक रस की उत्पत्ति मानी है। शृंगार की अनुकृति से हास्य, रौद्र तथा वीर कर्म के परिणामस्वरूप करुण तथा अद्भुत एवं वीभत्स दर्शन से भयानक उत्पन्न होता है। अनुकृति का अर्थ, अभिनवगुप्त (11वीं शती) के शब्दों में आभास है, अत: किसी भी रस का आभास हास्य का उत्पादक हो सकता है। विकृत वेशालंकारादि भी हास्योत्पादक होते हैं। रौद्र का कार्य विनाश होता है, अत: उससे करुण की तथा वीरकर्म का कर्ता प्राय: अशक्य कार्यों को भी करते देखा जाता है, अत: उससे अद्भुत की उत्पत्ति स्वाभाविक लगती है। इसी प्रकार बीभत्सदर्शन से भयानक की उत्पत्ति भी संभव है। अकेले स्मशानादि का दर्शन भयोत्पादक होता है। तथापि यह उत्पत्ति सिद्धांत आत्यंतिक नहीं कहा जा सकता, क्योंकि परपक्ष का रौद्र या वीर रस स्वपक्ष के लिए भयानक की सृष्टि भी कर सकता है और बीभत्सदर्शन से शांत की उत्पत्ति भी संभव है। रौद्र से भयानक, शृंगार से अद्भुत और वीर तथा भयानक से करुण की उत्पत्ति भी संभव है। वस्तुत: भरत का अभिमत स्पष्ट नहीं है। उनके पश्चात् धनंजय (10वीं शती) ने चित्त की विकास, विस्तार, विक्षोभ तथा विक्षेप नामक चार अवस्थाएँ मानकर शृंगार तथा हास्य को विकास, वीर तथा अद्भुत को विस्तार, बीभत्स तथा भयानक को विक्षोभ और रौद्र तथा करुण को विक्षेपावस्था से संबंधित माना है। किंतु जो विद्वान् केवल द्रुति, विस्तार तथा विकास नामक तीन ही अवस्थाएँ मानते हैं उनका इस वर्गीकरण से समाधान न होगा। इसी प्रकार यदि शृंगार में चित्त की द्रवित स्थिति, हास्य तथा अद्भुत में उसका विस्तार, वीर तथा रौद्र में उसकी दीप्ति तथा बीभत्स और भयानक में उसका संकोच मान लें तो भी भरत का क्रम ठीक नहीं बैठता। एक स्थिति के साथ दूसरी स्थिति की उपस्थिति भी असंभव नहीं है। अद्भुत और वीर में विस्तार के साथ दीप्ति तथा करुण में द्रुति और संकोच दोनों हैं। फिर भी भरतकृत संबंध स्थापन से इतना संकेत अवश्य मिलता है कि कथित रसों में परस्पर उपकारकर्ता विद्यमान है और वे एक दूसरे के मित्र तथा सहचारी हैं।

रस के प्रकार :-

1. श्रृंगार रस
2. हास्य रस
3. रौद रस
4. करुण रस
5. वीर रस
6. अदुभत रस
7. वीभत्स रस
8. भयानक रस
9. शांत रस
10. वात्सल्य रस
11. भक्ति रस


रसस्थायी भावउदाहरण
शृंगार रसरति/प्रेमशृंगार रस (संभोग शृंगार)
बतरस लालच लाल की, मुरली धरि लुकाय। 
सौंह करे, भौंहनि हँसै, दैन कहै, नटि जाय। (बिहारी)
वियोग शृंगार (विप्रलंभ शृंगार)
निसिदिन बरसत नयन हमारे, 
सदा रहति पावस ऋतु हम पै जब ते स्याम सिधारे॥ (सूरदास)
हास्य रसहास
 तंबूरा ले मंच पर बैठे प्रेमप्रताप, साज मिले पंद्रह मिनट घंटा भर आलाप। 
घंटा भर आलाप, राग में मारा गोता, धीरे-धीरे खिसक चुके थे सारे श्रोता। (काका हाथरसी)
करुण रसशोक
सोक बिकल सब रोवहिं रानी। रूपु सीलु बलु तेजु बखानी॥ 
करहिं विलाप अनेक प्रकारा। परिहिं भूमि तल बारहिं बारा॥(तुलसीदास)
वीर रसउत्साह
वीर तुम बढ़े चलो, धीर तुम बढ़े चलो। 
सामने पहाड़ हो कि सिंह की दहाड़ हो। 
तुम कभी रुको नहीं, तुम कभी झुको नहीं॥ (द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी)
रौद्र रसक्रोध
श्रीकृष्ण के सुन वचन अर्जुन क्षोभ से जलने लगे। 
सब शील अपना भूल कर करतल युगल मलने लगे॥ 
संसार देखे अब हमारे शत्रु रण में मृत पड़े। 
करते हुए यह घोषणा वे हो गए उठ कर खड़े॥ (मैथिलीशरण गुप्त)
भयानक रसभय
उधर गरजती सिंधु लहरियाँ कुटिल काल के जालों सी। 
चली आ रहीं फेन उगलती फन फैलाये व्यालों - सी॥ (जयशंकर प्रसाद)
वीभत्स रसजुगुप्सा/घृणा
सिर पर बैठ्यो काग आँख दोउ खात निकारत। 
खींचत जीभहिं स्यार अतिहि आनंद उर धारत॥ 
गीध जांघि को खोदि-खोदि कै माँस उपारत। 
स्वान आंगुरिन काटि-काटि कै खात विदारत॥(भारतेन्दु)
अद्भुत रसविस्मय/आश्चर्य
अखिल भुवन चर- अचर सब, हरि मुख में लखि मातु। 
चकित भई गद्गद् वचन, विकसित दृग पुलकातु॥(सेनापति)
शांत रसशम\निर्वेद (वैराग्य\वीतराग)
मन रे तन कागद का पुतला। 
लागै बूँद बिनसि जाय छिन में, गरब करै क्या इतना॥ (कबीर)
वात्सल्य रसवात्सल्य
किलकत कान्ह घुटरुवन आवत। 
मनिमय कनक नंद के आंगन बिम्ब पकरिवे घावत॥(सूरदास)
भक्ति रसभगवद् विषयक रति\अनुराग
राम जपु, राम जपु, राम जपु बावरे। 
घोर भव नीर- निधि, नाम निज नाव रे॥



शृंगार रस को रसराज कहा गया है। नाटक में 8 ही रस माने जाते हैं क्योंकि वहाँ शांत को रस नहीं गिना जाता। भरत मुनि ने रसों की संख्या 8 मानी है। हिंदी में केशवदास(16वीं शती ई.) शृंगार को रसनायक और देव कवि (18वीं शती ई.) सब रसों का मूल मानते हैं। "रसराज" संज्ञा का शृंगार के लिए प्रयोग मतिराम (18वीं शती ई.) द्वारा ही किया गया मिलता है। दूसरी ओर बनारसीदास(17वीं शती ई.) "समयसार" नाटक में "नवमों सांत रसनि को नायक" की घोषणा करते हैं। रसराजता की स्वीकृति व्यापकता, उत्कट आस्वाद्यता, अन्य रसों को अंतर्भूत करने की क्षमता सभी संचारियों तथा सात्विकों को अंत:सात् करने की शक्ति सर्वप्राणिसुलभत्व तथा शीघ्रग्राह्यता आदि पर निर्भर है। ये सभी बातें जितनी अधिक और प्रबल शृंगार में पाई जाती हैं, उतनी अन्य रसों में नहीं। अत: रसराज वही कहलाता है।


शृंगार रस
विचारको ने रौद्र तथा करुण को छोड़कर शेष रसों का भी वर्णन किया है। इनमें सबसे विस्तृत वर्णन शृंगार का ही ठहरता है। शृंगार मुख्यत: संयोग तथा विप्रलंभ या वियोग के नाम से दो भागों में विभाजित किया जाता है, किंतु धनंजय आदि कुछ विद्वान् विप्रलंभ के पूर्वानुराग भेद को संयोग-विप्रलंभ-विरहित पूर्वावस्था मानकर अयोग की संज्ञा देते हैं तथा शेष विप्रयोग तथा संभोग नाम से दो भेद और करते हैं। शारदातनय (13वीं शती) ने इच्छा तथा उत्कंठा को जोड़कर तथा विद्यानाथ (14वीं शती पूर्वार्ध) ने स्मरण के स्थान पर संकल्प लाकर और प्रलाप तथा संज्वर को बढ़ाकर इनकी संख्या 12 मानी है। यह युक्तियुक्त नहीं है और इनका अंतर्भाव हो सकता है। मान-विप्रलंभ प्रणय तथा ईष्र्या के विचार से दो प्रकार का तथा मान की स्थिरता तथा अपराध की गंभीरता के विचार से लघु, मध्यम तथा गुरु नाम से तीन प्रकार का, प्रवासविप्रलंभ कार्यज, शापज, सँभ्रमज नाम से तीन प्रकार का और कार्यज के यस्यत्प्रवास या भविष्यत् गच्छत्प्रवास या वर्तमान तथा गतप्रवास या भविष्यत् गच्छत्प्रवास या वर्तमान तथा गतप्रवास या भूतप्रवास, शापज के ताद्रूप्य तथा वैरूप्य, तथा संभ्रमज के उत्पात, वात, दिव्य, मानुष तथा परचक्रादि भेद के कारण कई प्रकार का होता है। 



हास्यरस

हास्यरस के विभावभेद से आत्मस्थ तथा परस्थ एवं हास्य के विकासविचार से स्मित, हसित, विहसित, उपहसित, अपहसित तथा अतिहसित भेद करके उनके भी उत्तम, मध्यम तथा अधम प्रकृति भेद से तीन भेद करते हुए उनके अंतर्गत पूर्वोक्त क्रमश: दो-दो भेदों को रखा गया है। हिंदी में केशवदास तथा एकाध अन्य लेखक ने केवल मंदहास, कलहास, अतिहास तथा परिहास नामक चार ही भेद किए हैं। अंग्रेजी के आधार पर हास्य के अन्य अनेक नाम भी प्रचलित हो गए हैं। वीर रस के केवल युद्धवीर, धर्मवीर, दयावीर तथा दानवीर भेद स्वीकार किए जाते हैं। उत्साह को आधार मानकर पंडितराज (17वीं शती मध्य) आदि ने अन्य अनेक भेद भी किए हैं। अद्भुत रस के भरत दिव्य तथा आनंदज और वैष्णव आचार्य दृष्ट, श्रुत, संकीर्तित तथा अनुमित नामक भेद करते हैं। बीभत्स भरत तथा धनंजय के अनुसार शुद्ध, क्षोभन तथा उद्वेगी नाम से तीन प्रकार का होता है और भयानक कारणभेद से व्याजजन्य या भ्रमजनित, अपराधजन्य या काल्पनिक तथा वित्रासितक या वास्तविक नाम से तीन प्रकार का और स्वनिष्ठ परनिष्ठ भेद से दो प्रकार का माना जाता है। 



शांत रस

शांत रस का उल्लेख यहाँ कुछ दृष्टियों से और आवश्यक है। इसके स्थायीभाव के संबंध में ऐकमत्य नहीं है। कोई शम को और कोई निर्वेद को स्थायी मानता है। रुद्रट (9 ई.) ने "सम्यक् ज्ञान" को, आनंदवर्धन ने "तृष्णाक्षयसुख" को, तथा अन्यों ने "सर्वचित्तवृत्तिप्रशम", निर्विशेषचित्तवृत्ति, "घृति" या "उत्साह" को स्थायीभाव माना। अभिनवगुप्त ने "तत्वज्ञान" को स्थायी माना है। शांत रस का नाट्य में प्रयोग करने के संबंध में भी वैमत्य है। विरोधी पक्ष इसे विक्रियाहीन तथा प्रदर्शन में कठिन मानकर विरोध करता है तो समर्थक दल का कथन है कि चेष्टाओं का उपराम प्रदर्शित करना शांत रस का उद्देश्य नहीं है, वह तो पर्यंतभूमि है। अतएव पात्र की स्वभावगत शांति एवं लौकिक दु:ख सुख के प्रति विराग के प्रदर्शन से ही काम चल सकता है। नट भी इन बातों को और इनकी प्राप्ति के लिए किए गए प्रयत्नों को दिखा सकता है और इस दशा में संचारियों के ग्रहण करने में भी बाधा नहीं होगी। सर्वेंद्रिय उपराम न होने पर संचारी आदि हो ही सकते हैं।
स्थायीभावों के किसी विशेष लक्षण अथवा रसों के किसी भाव की समानता के आधार पर प्राय: रसों का एक दूसरे में अंतर्भाव करने, किसी स्थायीभाव का तिरस्कार करके नवीन स्थायी मानने की प्रवृत्ति भी यदा-कदा दिखाई पड़ी है। यथा, शांत रस और दयावीर तथा वीभत्स में से दयावीर का शांत में अंतर्भाव तथा बीभत्स स्थायी जुगुप्सा को शांत का स्थायी माना गया है। "नागानंद" नाटक को कोई शांत का और कोई दयावीर रस का नाटक मानता है। किंतु यदि शांत के तत्वज्ञानमूलक विराम और दयावीर के करुणाजनित उत्साह पर ध्यान दिया जाए तो दोनों में भिन्नता दिखाई देगी। इसी प्रकार जुगुप्सा में जो विकर्षण है वह शांत में नहीं रहता। शांत राग-द्वेष दोनों से परे समावस्था और तत्वज्ञानसंमिलित रस है जिसमें जुगुप्सा संचारी मात्र बन सकती है।

  • श्रृंगार रस को रसराज / रसपति कहते है,
  • नाटक में – 8 ही रस माने जाते है, क्यूंकि शांत रस को नाटक में नही गिना जाता, भरत मुनि ने रसो की संख्या 8 मानी है,
  • भरत मुनि को रस का संकलनकर्ता माना जाता है,
  • इन्होने रसो की संख्या 8 मानी है,
  • किन्तु आचार्य अभिनवगुप्त ने नवमो डपी शान्तो रसः कहकर रसो की संख्या 9 बताई है,
  • उन्होंने वत्सल रस और भक्ति रस जो की बाद में जोड़े गए उसे श्रृंगार रस के अंतर्गत माना है,
  • अतः रसो की संख्या 9 मानी है, जो की उपयुक्त है,
  • भरत मुनि ने सबसे पहले अपनी नाट्य शास्त्र में रस का वर्णन किया था,
  • भारत मुनि को रस का संकलनकर्ता कहा जाता है,

Santosh Sawriya